मध्यप्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल बोर्ड के 10वीं और 12वीं के रिजल्ट में नरसिंहपुर जिला प्रदेश में लगातार तीसरी बार टॉप पर है। वहीं, सबसे खराब रिजल्ट दमोह का है।
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नरसिंहपुर का 10वीं का रिजल्ट 93.69 प्रतिशत और 12वीं का 92.96 प्रतिशत रहा। वहीं, दमोह जिले में 10वीं का 52.8 प्रतिशत और 12वीं का 47.8 प्रतिशत रिजल्ट रहा। दमाेह कलेक्टर सुधीर कोचर ने खराब रिजल्ट की जिम्मेदारी भी ली है।
दैनिक भास्कर ने जिला शिक्षा अधिकारी, कलेक्टर और शिक्षाविद् से बात कर इसके कारण तलाशने की कोशिश की। सामने आया कि नरसिंहपुर में अफसरों ने टारगेट तय कर रणनीति बनाकर काम किया। वहीं, दमोह में बच्चों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।
पहले बात नरसिंहपुर की…
जिला शिक्षा अधिकारी अनिल कुमार ब्यौहार ने तीसरी बार सफलता के पांच वजह बताईं-
1. कमजोर बच्चों के लिए एक्स्ट्रा क्लास सितंबर महीने में तिमाही परीक्षा के परिणामों के एनालिसिस किया। इसमें पढ़ाई में कमजोर बच्चों को चिह्नित कर उनके लिए एक्स्ट्रा क्लासेस लगाकर पढ़ाया गया। टीचर्स ने अतिरिक्त समय देकर कठिन विषयों को समझाया। उनके व्यक्तिगत शैक्षणिक स्तर को सुधारने का प्रयास किया। इससे कमजोर छात्र भी परीक्षा की दौड़ में शामिल हो पाए।
2. हर 15 दिन में टेस्ट और फॉलोअप विभाग ने मूल्यांकन प्रणाली अपनाई, जिसके तहत हर 15 दिन में बच्चों के टेस्ट लिए गए। इन टेस्ट के आधार पर बच्चों की प्रगति का नियमित मूल्यांकन किया गया। जो छात्र धीमी प्रोग्रेस कर रहे थे, उनके लिए विशेष रणनीति अपनाई। हर टेस्ट के बाद इनका फॉलोअप किया गया। सुनिश्चित किया गया कि बच्चों की कमियों को समय रहते दूर किया जा सके।
3. कमजोर स्कूल के टीचर्स को प्रशिक्षण और टारगेट कमजोर स्कूल को चिह्नित कर उनके टीचर्स को जिला स्तर पर विशेष ट्रेनिंग दी गई। इसमें नए तरीकों से बच्चों को पढ़ाने की टेक्नीक और समझाने का तरीका बताया गया, जिससे बच्चे कठिन विषय को आसानी से समझ सकें। साथ ही, हर स्कूल के प्राचार्य और टीचर्स को टारगेट दिया गया कि रिजल्ट 90% से कम नहीं आना चाहिए। इसके चलते हर स्कूल में तैयारी शुरू की गई। सभी टीचर्स जिम्मेदारी के साथ बच्चों के साथ जुट गए।
4. स्टूडेंट्स से वर्चुअल संवाद किया पढ़ाई में पिछड़ रहे बच्चों से जिला स्तर पर स्वयं वर्चुअल संवाद किया। इसमें उनकी रुचि, सोचने का तरीका और व्यावहारिक ज्ञान को समझते हुए पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। उन सफल छात्रों के उदाहरण भी बताए, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी बेहतर प्रदर्शन किया। इसका उद्देश्य केवल पढ़ाना नहीं, बल्कि उन्हें मानसिक रूप से तैयार करना भी था।
5. बोर्ड परीक्षा की तरह मॉडल पेपर सॉल्व करवाए टीचर्स से प्री बोर्ड की तरह मॉडल पेपर तैयार कराए। इन पेपर्स को स्कूल में भेजकर बच्चों से हल करवाया गया, जिससे बच्चे समय रहते एग्जाम को समझ सकें। इन प्रश्नों पर आधारित नियमित रूप से अभ्यास कराया गया, जिससे छात्रों को परीक्षा में उत्तर देने के प्रति आत्मविश्वास बढ़ा। इससे बोर्ड परीक्षा को लेकर उनकी तैयारी और रुचि दोनों में सुधार हुआ।
अब बात सबसे खराब रिजल्ट वाले दमोह जिले की
इस मामले में जब दमोह जिला शिक्षा अधिकारी एसके नेमा से बात की, तो उनके पास इसे लेकर स्पष्ट जवाब नहीं है। उनका कहना है कि हम समीक्षा करेंगे। डीईओ बेहतर और खराब रिजल्ट वाले पांच स्कूलों की जानकारी तक उपलब्ध नहीं करवा सके।
वहीं, कलेक्टर सुधीर कोचर ने खराब रिजल्ट की जिम्मेदारी ली है। उन्होंने कहा- हमारे प्रयास में कहीं कमी रह गई, जिसे इस बार जरूर पूरा करेंगे। इसके पहले, 2024 में भी जिले की हालत ठीक ऐसी ही थी, जबकि उसके पहले टॉप फाइव और टॉप 10 की रैंकिंग में शामिल रहा है।
कलेक्टर सुधीर कोचर और रिटायर्ड टीचर नरेंद्र नायक ने बताए खराब परीक्षा परिणाम के पांच कारण
1. परीक्षा केंद्रों पर कसावट पिछले दो साल से परीक्षा केंद्रों पर शिक्षा अधिकारियों के साथ मिलकर कसावट की है। उससे रिजल्ट पर असर पड़ा है। पहले बड़े पैमाने पर नकल प्रकरण बनते थे, पिछले साल सख्ती बरती। इस साल ज्यादा सख्ती बरती। कलेक्टर ने कहा कि सही तौर पर मानें, तो यही हमारा वास्तविक आइना है।
2. कलेक्टर ने माना– ध्यान नहीं देते टीचर्स डॉ. नायक के मुताबिक टीचर्स ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे जो बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उन्हें समझ आया है कि नहीं। इसमें शिक्षकों के साथ स्कूल के प्राचार्य की भी गलती मानी जाएगी, क्योंकि मॉनिटरिंग उनके हाथ में होती है।
कलेक्टर ने भी माना कि स्कूल में टीचर ध्यान नहीं देते। कई जगह वे स्कूल ही नहीं जाते। यदि शिक्षक स्कूल भी जाते हैं, तो वह ठीक से बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं। यदि शिक्षक ठीक से नहीं पढ़ाएंगे, बच्चों को समझ नहीं आएगा, तो यही स्थिति होगी, जो अभी हुआ है।
3. बच्चों की नींव ही कमजोर कलेक्टर ने बताया कि शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन में समय लगता है। शुरुआती कक्षा पहली दूसरी और तीसरी क्लास के बच्चे ठीक से पढ़ नहीं पाते। ऐसे में बच्चों की नींव कमजोर है। बुनियादी साक्षरता नहीं होने के कारण यही बच्चे जब आगे की कक्षा में पहुंचते हैं, तो ऐसे परिणाम आते हैं।
4. स्कूल में बच्चों की गैरमौजूदगी कलेक्टर भी ये मानते हैं कि ज्यादातर स्कूलों में कक्षाएं नियमित नहीं लगतीं। ठीक से पढ़ाई नहीं होती, इसलिए बच्चों में स्कूल जाने में रुचि नहीं रहती। ऐसे में बच्चों का बेस कमजोर रह जाता है। यदि क्लासेस नियमित लगें, शिक्षक ठीक से पढ़ाएं, तो बेहतर परिणाम ला सकते हैं। जिन बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है, उन्हें वापस लाने के लिए टीचर्स प्रयास नहीं करते।
वहीं, डॉ. नायक का कहना है कि बच्चों के स्कूल की उपस्थिति पर टीचर्स का कंट्रोल नहीं है। जितने बच्चे स्कूल पहुंचे, शिक्षकों ने उतने ही बच्चों को पढ़ाया। बाकी बच्चे स्कूल नहीं पहुंचे और उन्होंने पढ़ाई नहीं की, इसलिए बेहतर रैंक हासिल नहीं कर पाए।
5. टीचर और पेरेंट्स के बीच कम्युनिकेशन गैप बच्चों को स्कूल भेजने में अभिभावकों की रुचि महत्वपूर्ण है। पहले शिक्षक बच्चों के माता-पिता से मिलते थे। बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करते थे। इससे दोनों के बीच संवाद बनता था। उन्हें पता होता था कि बच्चे किस स्थिति में है। अब शिक्षक लापरवाही करते हैं।
डॉ. नायक भी मानते हैं कि माता-पिता और टीचर्स के बीच समन्वय नहीं होना बड़ा कारण है। टीचर्स ने अभिभावकों को भरोसे में नहीं लिया। उन्होंने बच्चों की रेटिंग नहीं बताई। ऐसा होता तो माता-पिता अपने बच्चों को बेहतर तैयारी करवाते।
कलेक्टर बोले– अगले साल की तैयारी करेंगे कलेक्टर सुधीर ने कहा कि मेरा लक्ष्य शिक्षा को फोकस करना था। सार्थक एप चालू किया, ताकि शिक्षक नियमित रूप से स्कूल जाएं। पेरेंट्स टीचर मीटिंग को नियमित किया। टाइम टेबल बनाकर पढ़ाई करवाई, फेसबुक लाइव पर शिक्षकों को जोड़ा। फिर भी हम वह नहीं कर पाए, जिसकी उम्मीद थी।
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